अध्याय 24 - श्री साई बाबा का हास्य विनोद, चने की लीला (हेमाडपंत), सुदामा की कथा, अण्णा चिंचणीकर और मौसीबाई की कथा ।
प्रारम्भ
अगले अध्याय में अमुक-अमुक विषयों का वर्णन होगा, ऐसा कहना एक प्रकार का अहंकार ही है । जब तक अहंकार गुरुचरणों में अर्पित न कर दिया जाये, तब तक सत्यस्वरुप की प्राप्ति संभव नहीं । यदि हम निरभिमान हो जाये तो सफलता प्रापात होना निश्चित ही है ।
श्री साईबाबा की भक्ति करने से ऐहिक तथा आध्यात्मिक दोनों पदार्थों की प्राप्ति होती है और हम अपनी मूल प्रकृति में स्थिरता प्राप्त कर शांति और सुख के अधिकारी बन जाते है । अतः मुमुक्षुओं को चाहिये कि वे आदरसहित श्री साईबाबा की लीलाओं का श्रवण कर उनका मनन करें । यदि वे इसी प्रकारा प्रयत्न करते रहेंगे तो उन्हें अपने जीवन-ध्येय तथा परमानंद की सहज ही प्राप्ति हो जायेगी ।
शिरडी में बाजार प्रति रविवार को लगता है । निकटवर्ती ग्रामों से लोग आकर वहाँ रास्तों पर दुकानें लगाते और सौदा बेचते है । मध्याहृ के समय मसजिद लोगों से ठसाठस भर जाया करती थी, परन्तु इतवार के दिन तो लोगों की इतनी अधिक भीड़ होती कि प्रायः दम ही घुटने लगता था । ऐसे ही एक रविवार के दिन श्री. हेमाडपंत बाबा की चरण-सेवा कर रहे थे । शामा बाबा के बाई ओर व वामनराव बाबा के दाहिनी ओर थे । इस अवसर पर श्रीमान् बूटीसाहेब और काकसाहेब दीक्षित भी वहाँ उपस्थित थे । तब शामा ने हँसकर अण्णासाहेब से कहा कि देखो, तुम्हारे कोट की बाँह पर कुछ चने लगे हुए-से प्रतीत होते है । ऐसा कहकर शामा ने उनकी बाँह स्पर्श की, जहाँ कुछ चने के दाने मिले ।
बाबा-तुम्हारा कथन सत्य है । परन्तु जब तुम्हारे समीप ही कोई न हो तो तुम या हम कर ही क्या सकते है । अच्छा, बताओ, क्या भोजन करने से पूर्व तुम्हें कभी मेरी स्मृति भी आती है । क्या मैं सदैव तुम्हारे साथ नहीं हूँ । फिर क्या तुम पहले मुझे ही अर्पण कर भोजन किया करते हो ।
शिक्षा
इस घटना द्घारा बाबा क्या शिक्षा प्रदान कर रहे है, थोड़ा इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है । इसका सारांश यह है कि इन्द्रियाँ, मन और बुद्घि द्घारा पदार्थों का रसास्वादन करने के पूर्व बाबा का स्मरण करना चाहिए । उनका स्मरण ही अर्पण की एक विधि है । इन्द्रियाँ विषय पदार्थों की चिन्ता किये बिना कभी नहीं रह सकती । इन पदार्थों को उपभोग से पूर्व ईश्वरार्पण कर देने से उनका आसक्ति स्वभावतः नष्ट हो जाती है । इसी प्रकार समस्त इच्छाये, क्रोध और तृष्णा आदि कुप्रवृत्तियों को प्रथम ईश्वरार्पण कर गुरु की ओर मोड़ देना चाहिये । यदि इसका नित्याभ्यास किया जाय तो परमेश्वर तुम्हे कुवृत्तियों के दमन में सहायक होंगे । विषय के रसास्वादन के पूर्व वहाँ बाबा की उपस्थिति का ध्यान अवश्य रखना चाहिये । तब विषय उपभोग के उपयुक्त है या नही, यह प्रश्न उपस्थित हो जायेगा और ततब अनुचित विषय का त्याग करना ही पड़ेगा । इस प्रकार कुप्रवृत्तियाँ दूर हो जायेंगी और आचरण में सुधार होगा । इसके फलस्वरुप गुरुप्रेम में वृद्घि होकर सुदृ ज्ञान की प्राप्ति होगी । जब इस प्रकारा ज्ञान की वृद्घि होती है तो दैहिक बुद्घि नष्ट हो चैतन्यघन में लीन हो जाती है । वस्तुतः गुरु और ईश्वर में कोई पृथकत्व नहीं है और जो भिन्न समझता है, वह तो निरा अज्ञानी है तथा उसे ईश्वर-दर्शन होना भी दुर्लभ है । इसलिये समस्त भेदभाव को भूल कर, गुरु और ईश्वर को अभिन्न समझना चाहिये । इस प्रकार गुरु सेवा करने से ईश्वर-कृपा प्राप्त होना निश्चित ही है और तभी वे हमारा चित्त शुदृ कर हमें आत्मानुभूति प्रदान करेंगे । सारांश यह है कि ईश्वर और गुरु को पहले अर्पण किये बिना हमें किसी भी इन्द्रयग्राहृ विषय की रसास्वादन न करना चाहिए । इस प्रकार अभ्यास करने से भक्ति में उत्तरोततर वृद्घि होगी । फिर भी श्री साईबाबा की मनोहर सगुण मूर्ति सदैव आँखों के सम्मुखे रहेगी, जिससे भक्ति, वैराग्य और मोक्ष की प्राप्ति शीघ्र हो जायेगी । ध्यान प्रगाढ़ होने से क्षुधा और संसार के अस्तित्व की विस्मृति हो जायेगी और सांसारिक विषयों का आकर्षण स्वतः नष्ट होकर चित्त को सुख और शांति प्राप्त होगी ।
सुदामा की कथा
उपयुक्त घटना का वर्णन करते-करते हेमाडपंत को इसी प्रकार की सुदामा की कथा याद आई, जो ऊपर वर्णित नियमों की पुष्टि करती ैह ।
श्रुति भी इस मत का प्रतिपादन करती है कि प्रथम ईश्वर को ही अर्पण करें तथा उच्छिष्ट हो जाने के उपरांत ही उसे ग्रहण करें । यही शिक्षा बाबा ने हास्य के रुप में दी है ।
अण्णा चिंचणीकर और मौसीबाई
अब श्री. हेमाडपंत एक दूसरी हास्यपूर्ण कथा का वर्णन करते है, जिसमें बाबा ने शान्ति-स्थापन का कार्य किया है । दामोदर घनश्याम बाबारे, उपनाम अण्णा चिंचणीकर बाबा के भक्त थे । वे सरल, सुदृढ़ और निर्भीक प्रकृति के व्यक्ति थे । वे निडरतापूर्वक स्पष्ट भाषण करते और व्यवहार में सदैव नगद नारायण-से थे । यघपि व्यावहारिक दृष्टि से वे रुखे और असहिष्णु प्रतीत होते थे, परन्तु अन्तःकरण से कपटहीन और व्यवहार-कुशल थे । इसी कारण उन्हें बाबा विशेष प्रेम करते थे । सभी भक्त अपनी-अपनी इच्छानुसार बाबा के अंग-अंग को दबा रहे थे । बाबा का हाथे कठड़े पर रखा हुआ था । दूसरी ओर एक वृदृ विधवा उनकी सेवा कर रही थी, जिनका नाम वेणुबाई कौजलगी था । बाबा उन्हें माँ शब्द से सम्बोधित करते तथा अन्य लोग उन्हेें मौसीबाई कहते थे । वे एक शुदृ हृदय की वृदृ महिला थी । वे उस समय दोनों हाथों की अँगुलियाँ मिलाकर बाबा के शरीर को मसल रही थी । जब वे बलपूर्वक उनका पेट दबाती तो पेट और पीठ का प्रायः एकीकरण हो जाता था । बाबा भी इस दबाव के कारण यहाँ-वहाँ सरक रहे थे । अण्णा दूसरी ओर सेवा में व्यस्त थे । मौसीबाई का सिर हाथों की परिचालन क्रिया के साथ नीचे-ऊपर हो रहा था । जब इस प्रकार दोनों सेवा में जुटे थे तो अनायास ही मौसीबाई विनोदी प्रकृति की होने के कारण ताना देकर बोली कि यह अण्णा बहुत बुरा व्यक्ति है और यह मेरा चुंबन करना चाहता है । इसके केश तो पक गये है, परन्तु मेरा चुंबन करने में इसे तनिक भी लज्जा नहीं आती है । यतह सुनकर अण्णा क्रोधित होकर बोले, तुम कहती हो कि मैं एक वृदृ और बुरा व्यक्ति हूँ । क्या मैं मूर्ख हूँ । तुम खुद ही छेड़खानी करके मुझसे झगड़ा कर रही हो । वहाँ उपस्थित सब लोग इस विवाद का आनन्द ले रहे थे । बाबा का स्नेह तो दोनों पर था, इसलिये उन्होंने कुशलतापूर्वक विवाद का निपटारा कर दिया । वे प्रेमपूर्वक बोले, अरे अण्णा, व्यर्थ ही क्यों झगड़ रहे हो । मेरी समझ में नहीं आता कि माँ का चुंबन करने में दोष या हानि ही क्या हैं ।
बाबा की भक्त-परायणता
बाबा भक्तों को उनकी इच्छानुसार ही सेवा करने दिया करते थे और इस विषय में किसी प्रकार का हस्तक्षेप उन्हें सहन न था । एक अन्य अवसर पर मौसीबाई बाबा का पेट बलपूर्वक मसल रही थी, जिसे देख कर दर्शकगण व्यग्र होकर मौसीबाई से कहने लगे कि माँ । कृपा कर धीरे-धीरे ही पेट दबाओ । इस प्रकार मसलने से तो बाबा की अंतड़ियाँ और ना़ड़ियाँ ही टूट जायेंगी । वे इतना कह भी न पाये थे कि बाबा अपने आसन से तुरन्त उठ बैठे और अंगारे के समान लाल आँखें कर क्रोधित हो गये । साहस किसे था, जो उन्हें रोके । उन्होंने दोनों हाथों से सटके का एक छोर पकड़ नाभि में लगाया और दूसरा छोर जमीन पर रख उसे पेट से धक्का देने लगे । सटका (सोटा) लगभग 2 या 3 फुट लम्बा था । अब ऐसा प्रतीत होने लगा कि वह पेट में छिद्र कर प्रवेश कर जायेगा । लोग शोकित एवं भयभीत हो उठे कि अब पेट फटने ही वाला है । बाबा अपने स्थान पर दृढ़ हो, उसके अत्यन्त समीप होते जा रहे थे और प्रतिक्षण पेट फटने की आशंका हो रही थी । सभी किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे । वे आश्चर्यचकित और भयभीत हो ऐसे खड़े थे, मानो गूँगोंका समुदाय हो । यथार्थ में भक्तगण का संकेत मौसीबाई को केवल इतना ही था कि वे सहज रीति से सेवा-शुश्रूषा करें । किसी की इच्छा बाबा को कष्ट पहुँचाने की न थी । भक्तों ने तो यह कार्य केवल सद्भभावना से प्रेरित होकर ही किया था । परन्तु बाबा तो अपने कार्य में किसी का हस्तक्षेप कणमात्र भी न होने देना चाहते थे । भक्तों को तो आश्चर्य हो रहा था कि शुभ भावना से प्रेरित कार्य दुर्गति से परिणत हो गया और वे केवल दर्शक बने रहने के अतिररिक्त कर ही क्या सकते थे । भाग्यवश बाबा का क्रोध शान्त हो गया और सटका छोड़कर वे पुनः आसन पर विराजमान हो गये । इस घटना से भक्तों ने शिक्षा ग्रहण की कि अब दूसरों के कार्य में कभी भी हस्तक्षेप न करेंगे और सबको उनकी इच्छानुसार ही बाबा की सेवा करने देंगे । केवल बाबा ही सेवा का मूल्य आँकने में समर्थ थे ।
बाबा भक्तों को उनकी इच्छानुसार ही सेवा करने दिया करते थे और इस विषय में किसी प्रकार का हस्तक्षेप उन्हें सहन न था । एक अन्य अवसर पर मौसीबाई बाबा का पेट बलपूर्वक मसल रही थी, जिसे देख कर दर्शकगण व्यग्र होकर मौसीबाई से कहने लगे कि माँ । कृपा कर धीरे-धीरे ही पेट दबाओ । इस प्रकार मसलने से तो बाबा की अंतड़ियाँ और ना़ड़ियाँ ही टूट जायेंगी । वे इतना कह भी न पाये थे कि बाबा अपने आसन से तुरन्त उठ बैठे और अंगारे के समान लाल आँखें कर क्रोधित हो गये । साहस किसे था, जो उन्हें रोके । उन्होंने दोनों हाथों से सटके का एक छोर पकड़ नाभि में लगाया और दूसरा छोर जमीन पर रख उसे पेट से धक्का देने लगे । सटका (सोटा) लगभग 2 या 3 फुट लम्बा था । अब ऐसा प्रतीत होने लगा कि वह पेट में छिद्र कर प्रवेश कर जायेगा । लोग शोकित एवं भयभीत हो उठे कि अब पेट फटने ही वाला है । बाबा अपने स्थान पर दृढ़ हो, उसके अत्यन्त समीप होते जा रहे थे और प्रतिक्षण पेट फटने की आशंका हो रही थी । सभी किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे । वे आश्चर्यचकित और भयभीत हो ऐसे खड़े थे, मानो गूँगोंका समुदाय हो । यथार्थ में भक्तगण का संकेत मौसीबाई को केवल इतना ही था कि वे सहज रीति से सेवा-शुश्रूषा करें । किसी की इच्छा बाबा को कष्ट पहुँचाने की न थी । भक्तों ने तो यह कार्य केवल सद्भभावना से प्रेरित होकर ही किया था । परन्तु बाबा तो अपने कार्य में किसी का हस्तक्षेप कणमात्र भी न होने देना चाहते थे । भक्तों को तो आश्चर्य हो रहा था कि शुभ भावना से प्रेरित कार्य दुर्गति से परिणत हो गया और वे केवल दर्शक बने रहने के अतिररिक्त कर ही क्या सकते थे । भाग्यवश बाबा का क्रोध शान्त हो गया और सटका छोड़कर वे पुनः आसन पर विराजमान हो गये । इस घटना से भक्तों ने शिक्षा ग्रहण की कि अब दूसरों के कार्य में कभी भी हस्तक्षेप न करेंगे और सबको उनकी इच्छानुसार ही बाबा की सेवा करने देंगे । केवल बाबा ही सेवा का मूल्य आँकने में समर्थ थे ।
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